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मानसिकता - डॉ अनीता कपूर

जी नमस्ते, मेरा नाम सरिता है और में आपके बिलकुल ऊपर वाले फ्लैट में रहती हूँ...”

”जी नमस्ते, कहिए?”

” मुझें घर में काम करने के लिए एक बाई की जरूरत है तो क्या अपनी बाई को ऊपर भेज देंगी?”

”जरूर भेज दूँगी, वैसे कितने लोग है आप के घर में?”

” बस मैं अकेली ही हूँ।”

”अच्छा थोड़ी देर में बाई आ जाएगी।”

‘’जी धन्यवाद”... कहकर मेंने इंटेर्कोम रख दिया। थोड़ी देर बाद, दरवाजे की घंटी बजी तो  वाकई बाहर एक बाई को खड़ा पाया, मन में एक खुशी के लहर लहरा गयी...सोचा, चलो एक समस्या का समाधान तो आसानी से हो गया है। बाई से सारी बात तय हो गयी थी वक्त और पैसों को लेकर....और फिर कल से उसके आने का इंतज़ार भी शुरू हुआ...लगा कि बाई के हाथ में एक सुदर्शन चक्र है और वो कल से मेरे अव्यवस्थित घर की धुरी घुमा देगी। अगले रोज़ बाई का इंतज़ार करती रही पर वो नहीं आई। उसके अगले दिन मैं  परेशान सी लिफ्ट से उतर कर किसी नई बाई की तलाश में मुड़ी ही थी कि सामने से वही बाई दिखाई, वह मुझे देख कर कन्नी काटने की कोशिश में थी...मैंने उसे पकड़ कर पूछ ही लिया -”सब कुछ तय हो तो गया था फिर तुम आई क्यों नहीं?”

वो सकुचा कर बोली.....”मेमसाहब मैं तो आना चाहती थी पर आपके नीचे वाली आंटी जी ने मना  कर दिया आपके यहाँ आने से”....

”पर क्यों मना किया और तुमने उनकी बात भी मान ली, क्या तुम्हें और पैसा नहीं चाहिए?’

वो बोली...” पैसा किसे बुरा लगे हैं मेमसाहब, पर आप तो यहाँ हमेशा रहने वाली हो नहीं, उनका काम तो पक्का है न, और वो बोल रही थी कि आप अकेली औरत हो...उन्हे शक है कि कुछ.....कि कुछ.....”, इसके आगे बाई कुछ बोली नहीं और चली गई । और मैं चुपचाप खड़ी उसकी पीठ पर अपने अकेले होने के एहसास को ढूँढने लगी ....समझ नहीं पाई कि चुनौतियों को पार करके यहाँ तक पहुँचने के लिए खुद को शाबाशी दूँ, या नीचे वाली उस आंटी जी की “अकेले” शब्द की मानसिकता पर दुख मनाऊँ।

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